छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: अपन बड़ई सुनई मांहगा परगे

अपन बड़ई सुनई मांहगा परगे

मोला कतको ठन जिनिसह बड़ भाथे। फेर एक ठन जिनिस हा असइे ये जेखर बर मैं कुछु भी कर सकथंव ! अऊ ओ जिनिज ये ‘अपन बड़ई‘ बस इही एक ठन अइसे जिनिस ये, येखर बर मैं का नी कर सकहूं, का नई साहान कर सकहूं। 
खाए बर मत दें, पीए बर मत दे, कपड़ा ओनहा मत दे, रोजी-रोजगार मत दे, फेर किरपा करके दिल खोलके, भले मुट्ठा के सही, मोर बड़ई करते जावव। मैं तुहार चरनदास बन जहूं। ओ दसा म मोर सहिक बिगन पइसा क नवकर तुमन ल खोजे नई मिलय। अन्ठावन के ऊपर होती आगे। सैंइकरो संगवारी बनीन। फेर उही मन टीकीन जौंन मन मोर आज ले बड़ई करथे। जोंन मन रट्ठ गोठिअईन, मैं ऊंखर ले मुंह मोर लेंव। का बतावव जानथो सबो के ला फेर ये मामला म मैं कोनों ल नई मानव। रट्ठ सुनना मोला पसंद नई हे। असर मोर ऊपर मीठ बाते के होथे। येला मोर गवारी, कहाव, कमजोरी कहाव, चाहे बुरई कहि सकथो। बात मोर में हे। में इनकार नई करत हौंव। 
तेखर सेती मैं बड़ई करइया के मोल ल जानथंव। कइसे नई जान हूं ? सरकारो घला तो बड़ई के बल म चलथे। सरकार का, भगवान ला घलो कहूं बड़ई करइया के अंकाल पर जाय त ओखरो दस चिराड़ जाए। किसिम-किसिम के लालच दे के, ओहा अपन गीत ल गवाथे। कवि मन के घलो इही हाल हे। कबि मन अन-जल म थोरहे जीथे ? ये मन तो बड़ई के भूखे रहिथे। बड़ई सुनत रहीं त फुल बरोबर फूले रहिथे, अऊ बड़ई नई सुनिस त मुरझावत टेम नई लागय। 
ओ दिन बस म मोर रचना के एक झन पढ़इया भेंट पारीस। मैं साहित्यकार सम्मेलन म रईपुर जावत राहांव। मोर संग एक दुझन अऊ संगवारी मन राहाय। साहित्य के गोठ चलत राहाय। ओ पाठक हा मोर नाव ल सुनके कहिथे-या तही ‘निश्छल‘ अस गा, तोर रचना ल तो हरिभूमि के चौपाल अऊ देशबन्धु के ‘बड़ई‘ म पढ़बे करथो फेंर एक दिन तो तोर कहिनी किताब ‘देवकी‘ मोर हात लगगे। बड़ सुग्घर कहिनी लिखे हौंव, मोर गाड़ा-गाड़ा बधई झोंकव कहि के मोला पोटार लीस। आज तोर संग संउहे भेंट होगे। धन हमर भाग। मोर घरवाली हा तो तोर रचना के देवानी हे। अऊ ते अऊ, मोर नान्हे बेटी हा तोर कविता ल रट डारे हे।‘ 
बगल म मोर संगवारी मन डाहार मैं करनेखी रेखेंव त ओखर मन के मुंह हा पछलती घाम सहिक उतर गेय राहाय। बस म अऊ बइठे जातरी मन घलौ मोला बक खाके देखे लगिन। मोर छाती हा अऊ फुग्गा बरोबर फुलगे। में तन के बैठे राहाव। अपन बड़ई सुनके भले मानुस मन ल संकोच लागथे, तइसे महू हा संकोच मरे लगेंव। मैं जानथों कि बिदिया हा आदमी ल बिनयवान बनाथे। महू बिनयवाला बन गेंव। अऊ केहेंव-अरे भइया! मैं का आंव ? अइसने कांही कुछु थोर बहुत लिख-पढ़ लेथव जी। आप मन सहीक गियानी मन ल मोर लिखई भा जथे इही मोर बर बड़ भाग ये। ओ बिगन जाने पहेचाने मोर रचना पढ़ईया संगवारी हा किथे - गियानी मन मा तो सहे के गुन होथे। बने गुन खराब मइनखे करा नई राहाय। नानहे बरतन म तो पानी हा छलकथे। मैं छत्तीसगढ़ के कतकों झन साहित्यकार मन ले भेंट करे हांवव, मैं मुंह देखी नई गाठियावंव, राम-राम ऊखन म तोर सहिक कांहा गुन पावे ? तुहला देख के अपने परवार के आदमी कस लागथो। मैं अऊ जादा बिनयवान होंगेव। 
बाते बात म पता चलिस कि ओ हा रईपुरे म रहिथे। अऊ महासमुन्द म हफ्ता म दू-तीन खेप अपन काम ले के आवत जात रहिथे। मैं अपन सुभाव के सेती आत्मिक जन समझ के ओला एको दिन घर आहू कहि परेंव। उहू अपन घर आये के नेंवता दिस। मैं केहेंव ठीक हे वइसे मोरो घर रईपुर म हे, फेर मैं अपन परवार समेत महासमुन्द म रहिथंव। मैं इंहा राज्य इसतरीय पत्रकार, साहित्यकार सम्मेलन म आवत हौंव। संझा बेरा लहुट जहूं। 
मोला कतको ठन जिनिसह बड़ भाथे। फेर एक ठन जिनिस हा असइे ये जेखर बर मैं कुछु भी कर सकथंव ! अऊ ओ जिनिज ये ‘अपन बड़ई‘ बस इही एक ठन अइसे जिनिस ये, येखर बर मैं का नी कर सकहूं, का नई साहान कर सकहूं। 
खाए बर मत दें, पीए बर मत दे, कपड़ा ओनहा मत दे, रोजी-रोजगार मत दे, फेर किरपा करके दिल खोलके, भले मुट्ठा के सही, मोर बड़ई करते जावव। मैं तुहार चरनदास बन जहूं। ओ दसा म मोर सहिक बिगन पइसा क नवकर तुमन ल खोजे नई मिलय। अन्ठावन के ऊपर होती आगे। सैंइकरो संगवारी बनीन। फेर उही मन टीकीन जौंन मन मोर आज ले बड़ई करथे। जोंन मन रट्ठ गोठिअईन, मैं ऊंखर ले मुंह मोर लेंव। का बतावव जानथो सबो के ला फेर ये मामला म मैं कोनों ल नई मानव। रट्ठ सुनना मोला पसंद नई हे। असर मोर ऊपर मीठ बाते के होथे। येला मोर गवारी, कहाव, कमजोरी कहाव, चाहे बुरई कहि सकथो। बात मोर में हे। में इनकार नई करत हौंव। 
तेखर सेती मैं बड़ई करइया के मोल ल जानथंव। कइसे नई जान हूं ? सरकारो घला तो बड़ई के बल म चलथे। सरकार का, भगवान ला घलो कहूं बड़ई करइया के अंकाल पर जाय त ओखरो दस चिराड़ जाए। किसिम-किसिम के लालच दे के, ओहा अपन गीत ल गवाथे। कवि मन के घलो इही हाल हे। कबि मन अन-जल म थोरहे जीथे ? ये मन तो बड़ई के भूखे रहिथे। बड़ई सुनत रहीं त फुल बरोबर फूले रहिथे, अऊ बड़ई नई सुनिस त मुरझावत टेम नई लागय। 
ओ दिन बस म मोर रचना के एक झन पढ़इया भेंट पारीस। मैं साहित्यकार सम्मेलन म रईपुर जावत राहांव। मोर संग एक दुझन अऊ संगवारी मन राहाय। साहित्य के गोठ चलत राहाय। ओ पाठक हा मोर नाव ल सुनके कहिथे-या तही ‘निश्छल‘ अस गा, तोर रचना ल तो हरिभूमि के चौपाल अऊ देशबन्धु के ‘बड़ई‘ म पढ़बे करथो फेंर एक दिन तो तोर कहिनी किताब ‘देवकी‘ मोर हात लगगे। बड़ सुग्घर कहिनी लिखे हौंव, मोर गाड़ा-गाड़ा बधई झोंकव कहि के मोला पोटार लीस। आज तोर संग संबहे भेंट होगे। धन हमर भाग। मोर घरवाली हा तो तोर रचना के देवानी हे। अऊ ते अऊ, मोर नान्हे बेटी हा तोर कविता ल रट डारे हे।‘ 
बगल म मोर संगवारी मन डाहार मैं करनेखी रेखेंव त ओखर मन के मुंह हा पछलती घाम सहिक उतर गेय राहाय। बस म अऊ बइठे जातरी मन घलौ मोला बक खाके देखे लगिन। मोर छाती हा अऊ फुग्गा बरोबर फुलगे। में तन के बैठे राहाव। अपन बड़ई सुनके भले मानुस मन ल संकोच लागथे, तइसे महू हा संकोच मरे लगेंव। मैं जानथों कि बिदिया हा आदमी ल बिनयवान बनाथे। महू बिनयवाला बन गेंव। अऊ केहेंव-अरे भइया! मैं का आंव ? अइसने कांही कुछु थोर बहुत लिख-पढ़ लेथव जी। आप मन सहीक गियानी मन ल मोर लिखई भा जथे इही मोर बर बड़ भाग ये। ओ बिगन जाने पहेचाने मोर रचना पढ़ईया संगवारी हा कहिथे - गियानी मन मा तो सहे के गुन होथे। बने गुन खराब मइनखे करा नई राहाय। नानहे बरतन म तो पानी हा छलकथे। मैं छत्तीसगढ़ के कतकों झन साहित्यकार मन ले भेंट करे हांवव, मैं मुंह देखी नई गाठियावंव, राम-राम ऊखन म तोर सहिक कांहा गुन पावे ? तुहला देख के अपने परवार के आदमी कस लागथो। मैं अऊ जादा बिनयवान होंगेव। 
बाते बात म पता चलिस कि ओ हा रईपुरे म रहिथे। अऊ महासमुन्द म हफ्ता म दू-तीन खेप अपन काम ले के आवत जात रहिथे। मैं अपन सुभाव के सेती आत्मिक जन समझ के ओला एको दिन घर आहू कहि परेंव। अहू अपन घर आये के नेंवता दिस। मैं केहेंव ठीक है वइसे मोरो घर रईपुर म हे, फेर मैं अपन परवार समेत महासमुन्द म रहिथंव। मैं इंहा राज्य इसतरीय पत्रकार, साहित्यकार सम्मेलन म आवत हौंव। संझा बेरा लहुट जहूं।
ओ किथे- समें मिलही त एक बेर जरूर आहू भई मोर धर। मैं ओखर दुनो हांत म हांत, जोरत केहेंव-हां, भइया आहू कहिके ओखर ले बिदा लेंव। लोगन कहिथे-रईपुर हा अब ओ रईपुर नई 
रहिगे, अब ऊंहा चोर-लबरा मन के डेरा होंगे। रद्दा-रद्दा म ठग-जग मन आनी-बानी के खेल तमासा देखा के अवइया-जवइया मन ल लूट लेथे। आनी-बानी के मइनखे रईपुरे म देख ले। चोर-साव के चिनहारी नई हे। 
महूं सोंचथंव-मैं तो इंहे के उपजन, बाड़हन आंव, पढ़हई-लिखई, खेलई-कूदई सब रईपुरे म होय हे। हां अतका बात हे कि ओ बेखत के अलगे समे राहाय। आज मोला रईपुर ल छोड़े दु कोरी बछर होगे। सरि संसार म बदलाहट आगे त का रईपुर हा अइसने थोरहे रही। बदलाहट हा तो ये सिसटी के नियम ये। फेर महूं ल अंचबो लागथे कि अब मोर दुकोरी बछर वाले रईपुर हा गंवागे। अब रईपुर हा हमर छत्तीसगढ़ राज के राजधानी, बनगे येखर सान बाढ़गे। नावा नेंवरनीन बहू सहीक दिनों-दिन चमके लगिस। ओ हा अपन जुन्ना दिन ल तियाग के महानगर के बाना ओढ़े लगिस। चलौ बनेच बात ये। जमाना संग चले ल लागथे। अपन जुन्ना चोला ल तियाग के नावां के सोपान गढ़ई हा तो उन्नेति कहाथे का ?
हफ्ता पन्दरही के गेये ले उही पाठक संगवारी संग महासमुन्द म भेंट होगे। जय जोहार होईस बड़ खुसी-खुसी मिलेन।  ओ बतइस मैं कतको झन बैपारी मेंर उसुली बर आते रहिथो कहिके। मैं अपन सुभाव के सेती केहेंव चलौ न तो हमरो गरीब के झोपड़ी ल देख लेहू। हो कहिथे-लो न फेर कभू देख लेबो, मोला दु-तीन दिन के आड़ म आयेच ल लागथे महासमुन्द म। मैं बड़ बिनती करत केहेंव-आप मन सहीक परेमी मन के संग मिलना भाग के बात होथे, मोर झोपडी पबरीत हो जही आप मन के चरन के धुर्रा म। ओ हा मोर हात ल चपकत कहिथे।‘‘ नहीं नहंी साहू जी मोला अतक पन के ऊंच पीढ़ा म झन बइठारों मैं तो आप मन के आगू म नानहे हांव, कांहा आप जइसे बड़े साहित्कार, ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि‘ कहिथे। 
ओकर अतका सुग्घर गोठ ल सुनके मैं फेर बड़ई म मोम सहीक टघले लगेंव। मैं केहेंव- नहीं भईया आज तो तोला मोर घर चलना च परही। काहात ओला बरपेली अपन सइकिल म बइठारेंव। घर म आ के अपन खोली म बइठार के मैं घर के मन ल चेताय बर आयेंव कि बने चाहा-नास्ता पानी ल बना के नानहू कहिके। 
मोर गोसइन हा मोर आदत ल देखके चेतावन रहिथे-देख न तुमन कोनो भी आदमी ल घर म झन लाने करव। आजकाल समें बने नई हे। कतको ठग-जग, चोर-लबार, घर-घर कींदरत रहिथे कहिके। मोला पूछथे- ओ आए हे तेन हा कोन ये, काबर आए हे? कहिके। मैं तो पहिलीच ले जानत राहांव-ये हा अइसने पूछही कहिके। मैं केहेंव ये हा कोई चोर-लबरा, ठग-जग नो हे ओ, ये तो साहित्य परेमी आय बिचारा हा। रईपुर म रहिथे। इहां महासमुन्द म वसूली म आथे। ये हा मोर रचना ला जी जान दे के पढ़थे। इहीच ह न ही येखर पत्नी-लइका जम्मो झन पढ़थे।
गोसइन हा मुंह ल गुरेरत कहिथे- हां अइसने कहिस हो ही त तैं ओखर पट्टी पर आ गेय होबे। बने बात ये। फेर ओला घर म काबर लाने होबे। बाहिरे ले राम-राम नई कहि सकेस ? मैं केहेंव-अरे लछमी तैं तो सबो ल चोर-लबरा समझ लेय। साहित्य परेमी मन अइसन नई होवय। अइसने तोर आदत ल देखके मोला घुस्सा लागथे। तोर आगू म बड़े-बड़े के कोई किम्मत नई हे ?
ओ किथे-बने अऊ गिनहा हा कखरो चेहरा म नई लिखाये राहाय। तोरे सहीक मन तो मुड़ धर के रोथे। एक घांव बड़ई गोठिया दिस तहा ते फुल के कुप्पा हो जथस। मैं केंहेव ठीक हे लछमी आज ले मैं कनहों ल घर नई लानव। आज तो ये आए बला ल टार, नासता नई बनाबे ते झन बना, चाह ल तो बना के दे।
मैं बने खुस रेहेंव तेन ला गोसईन हा दिमाक ल खराब कर दिस। मैं साहित्यिक सगा ल माफी मांगत ओकरे आगू म बैठ गेंव। बाजू के अलमारी म किताब फाईल ल गंजाए देख के कहिथे- अतका पोथी-पुरान ल रोज दिन बाचत रथा तेखरे सेती अतका सुग्घर-सुग्घर रचना के सिसटी करथो 
भई। मैं तुंहरे सहीक कवि-लेखक मन के आदर करथो तेन ह फोकटे थोरहें ये ? मैं ओखर बड़ई ल सुन के तरि गड़त-उफलावत राहांव।
ओतके बेरा गोसइन हा पानी चाहा ल थारी म मड़ा के लानिस। मैं सगा संग परचे कराएंव। दुनों झन एक दूसर ले देखके नमस्कार-चमत्कार करीन। गोसइन चल दिस। हमन अऊ कतको झन साहित्यिकार मन के गोठ गोठियावत चाहा ल सुड़के लगेन। ओखर साहित्यिक अऊ साहितियिकार मन के जानकारी रखई ल सुनके मैं ओला अपन परवारिक समझे लगेंव। अइसे लगिस जाने-मने ओहा मोर कोनो जनम के कांही लाग-मानी ये तइसे। चाहा उरकीस ताहां मैं पान-दान के डब्बा ला ओखर कोती लमायेंव। एक ठन इलाइची ल उठा के मुंह म दबावत-उठिस, जाय बर दुनों हांत ल जोर के छुट्टी मांगिस। महुं हा ओखर बिदई म अपन पना ला ढरकावत केहेंव आते-जावत रेहे करहूं भई। ये ला अपने घर समझव काहात दुवारी मेंर ले पहुंचाए बर आएंव। 
ओखर बिदा होय के बाद मैं अपन अमोल सुख पाए के बिजय म गोस्वामी तुलसीदासजी के एक ठन चौपाई ला गुन-गुनाए लगेंव:
 ‘अब सोहि मा भरोस हनुमन्ता।
बिनु हरि कृपा मिलही नहीं संता।।‘
दुसर दिन गोसइन हा कहिथे- तैं तो अपने म मस्त रहिथस। महिना पुर गेये हे घर म कांहीच नई हे, तनखा-उनखा ल झोके हस धुन तोर रचना ल घोर-घोर के पिअन। मैं केहेंव-‘काबर अतका ताना मारथस ओ। तनखा तो कालीच लाने हौंव, ओ दे बैग टंगाए हे तेन म हावे जा निकार ले। काली ओ साहित्यिक संगवारी आए रीहीस तेखर सेती सुरता भुलागे तोला देये बर।‘
गोसइन हा बैग के चैन ला खोल के हात ल डार के टमरथे ऊंहा कागद-पातर के छांड़ काही नई राहाय। बैग ल मोर आगू म लान के पटक दिस। अऊ कहिथे- एमा काहां के पईसा हे, कागद-पातर तो गंजाए हे। मैं गोसइन के गोठ ल सुनके ठक्क रहिगेंव। मोर सरि अंग के रूवां घुरघुरागे। मैं उत्ता-धुर्रा जम्मों कागद-पातर ला निकार के लहुटा-पहुटा के देखे लगेंव। ऊंहा कांही रहितीस तेन तो दिखतीस। मोला काली के रहि-रहि के सुरता आये लगिस ओ रईपुरवाला ला भेंटेंव। ओखर संग घर आयेंव। खूंटी म टांग के चाहा-पानी केहे बर आयेंव अऊ तो कांहचो नई गेये हौंव।
मोर आंखी के आगू ले अपन बड़ई सुनई के परदा हा खर्र ले तिरागे। अपने बड़ई सुनई ह मोला माहगी परगे। मोर मयारू सगा हा महिना भरके तनखा ला अपन परसंसा के मजदूरी समझ के ले गेये राहाय। गोसईन हा जरे म नून डारत कहिथे-‘अपने बड़ई सुन के आदमी ल जादा इतराना नई चाही।‘ ले अब भुगत।  

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

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