छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: दमाद बाबू

दमाद बाबू

एक दिन के बात ये। मैं रईपुर एक ठन काम ले के गेय राहांव। काम उरके के बाद एक झन जुन्ना संगवारी संग भेंट करे के मन लगिस मैं तुरते ओखर घर पहुंच गेंव। मैं जइसे उंखर घर गेंव, त देखथंव कि घर-दुआर हा बने चिक्कन लिपाए-पोताए राहाय। मैं सोंचेव घर-दुवार ल तो देवारी म लिपवाए-पोतवाए रिहिस अभी अऊ काबर लिपई-पोतई होय हे ? मैं जब बइठक खोली म गेंव त मोर संगवारी ह नौकर ल समान ल रखवाए बर समझावत राहाय। गुलदस्ता ल ये मेर राखबे, खुरसी मन ल ये मेर जमाबे, ये मेर नावां परदा ला लगाबे कहिके। मोला देखके कहिथें-अरे साहू जी तैं ? चलो शुभ बेरा हे तैं आगे ते बने करे। मैं केहेंव-कांही कारिय करम हे का कवि गोसठी उ- के ? ओ कहिथे- यार, मैं तो तुहंर कवि मन ले परसान हांव। अरे काहीं कवि गोसटी-उसठी नई हे रे भइया मोर दमांद बाबू अवइया हे। अच्छा होगे, तैं मोर दमांद ल नई देखे हावंव काहात रेहे, आज परचे हो जही। 
मैं पूछेंव कइसे आवत हे दमांद बाबू हा ? ओ किथे- या ! नोनी ल लेगे बर नई आथे जी ? पहिली-पहिली बेर आवत हे बिहाव के होय ले तो एको बेर नई आए हे। में केहेंव- ले का होईस, बने बात ये। तेखरे सेती सजावट होवत हे का। हहो... कहिके मोला सोफा म बइठे बर कीहीस।
मैं सोफा म बइठेंव, ओतके बेरा घर के आगू म आटो के आए के आरो मिलीस। संगवारी किथे- ओ दे आगे तइसे लागत हे दमाद ह, अइसे काहात-काहात देखे बर बाहिर निकरीस। एक झन नौकर ल पहिली ले ठाढ़ करवा देय राहाय बाहिर म, महूं, ओखर पाछू-पाछू निकरेंव। दमांद बाबू ह आटो वाला ल कतका होईस कहिके पूछत अपन पेंठ के जेब ले पइसा निकारत राहाय। त संगवारी हा मना करत कीहीस-नहीं-नहीं बाबू राहान दे, मैं दे देथंव। आटो वाला ला पूछथे-चालीस हुआ बाबूजी। त दमांद बाबू हा सुर के पइसा देवइला अपन सान के खिलाफ समझत किथे-न, ही मेरे पास है न छुट्टे, लो जी काहात भीतरी आए बर मुरकीस। ससुर के पैलगी करे के बाद मोरो पै लगी करीस। मैं ओखर दुनो बांह ल धर के असीस देंव। मोर परचे करावत बतइस-ये हा मोर जुन्ना मितर आय, इंहे के रहिवइया ये, फेर आज-काल महासमुंद म नौकरी म हे। 
दमांद बाबू ह फेर दुनो हांत जोर के नमस्ते करीस में फेर ओखर हांत ल घर के नमस्कार करेंव। बइठक म आ के बइठेन। त ओखर सास आईस, दमांद ह पैलगी करीस त पुछ थे रसदा म कुछ तकलीफ तो नई होईस बाबू ? त दमांद ह लजावत किहिस, ‘नहीं मां कांही तकलीप नई होईस।‘ सास हा पुछते-‘तोर दाई-ददा अऊ घर के मन बने-बने हें न ? हां मां सब बने-बने हे, अइसे कहिके दमाद ह लजावत मुड़ ल गड़ियाए अपन छिनी अंगरी म मुंदरी पहिरे राहाय तेन ला गोल-गोल किंदारे लगिस।
सास ह अपन  बेटी ला लोटा म पानी धर के बलावत किथे-‘कमला लोटा म पनी लान बेटी।‘ त नोनी हा मुंड़ ल ढांके चोरी-चोरी अपन जोड़ी ल देखत अईस। अऊ आके लोटा ल दमाद के गोड़ मेर मड़ा के पांव परीस। अऊ लकर-लकर भीतरी डाहार चल दिस। त सास किथे-‘चल बेटा नाहनी म गोड़-हांत ल धो लेबे कहिके लहुट के नाहनी ल बतईस।‘ दमाद ह नाहनी म खुसर गे, अऊ सास हा रंधनी मं। रंधनी घर ले बने माहार-माहार सुगंध आवत राहाय। जेवन के बेरा तो होई गेय राहाय मोला बड़ जम के भूख लागत राहाय। 
दमाद संग बइठ के कांही-कुछु गोठ बात होवत रीहीस। संगवारी किथे-‘ले चलव साहू जी दमांद बाबू ल लानव डाइनिंग रूम म खाना लग गेय हे।‘ मैं देवाल म टंगाए घड़ी ला देखाए बर देखे लगेंव। हां बेरा तो हो गेय हे भोजन के। दमांद बाबू हा घलो भुखाए होही। मोर गोठ ल सुनके दमांद हा किथे, ‘नहीं मैं तो खाना लेके आया था घर से बिलकुल भूख नही है।‘ मैं केहें, ‘ वा ! कइसे नई खाहू जी सास-ससुरार म आ के भूखन थोरहे रहू, चलव उठव काहात ओख हांत ल धर के उठायेंव। 
दू-तीन बजत राहाय, भूख के बेरा तो होई गेय राहाय, फेर संकोच म कइसे काहाय ? डाइनिंग  हाल म आके डाइनिंग टेबल म तीनों झन बइठेंन। टेबल ऊपर आनी-बानी के खाए के जीनिस कटोरी-पलेट म रखाए राहाय। घीवे-घीव के पराठा, पुरी, हलवा, गुलाब जामुन, खीर, रसगुल्ला, पापर, सलाद, आमा लिमऊ, करौंदा के मीठा अऊ नुनहा अथान। देखईया के बिगन खाए पेट भर जतिस तइसन जीनिस राहाय। मैं सोंचत रेहेंव हमर छत्तीसगढ़ म सन् छैंसठ के दूकाल म लोगन ल एक बेर के पेज हा नई मिलत रिहिस छत्तीसगढ़ के अंकाल म केऊ ठन गांव के गांव उसल गेये रिहिस सब परदेश धर लेय रिहिन कमाए-खाए बर। अमरीका ले चाऊर-गहूं अऊ बाजरा मंगवाये गेय रिहिस अऊ ये बैपारी मन के गुदाम म चाऊंर हा सरत परे रीहीस। ओमा मानवता के आतमा घलौ रिहिस। 
मोर तो भूख के मारे परान निकरत राहाय अऊ संकोच घलौ लागत राहाय। काबर कि दामाद बाबू हा संकोच म धीरी-धीरे एक ठन रोटी ल थथेलत राहाय। आनी-बानी के खीर-पुरी मिठई के पलेट हा टेबल भर ओरियाय राहाय एको पलेट हा उरके नई राहाय तभो ले मोर संगवारी हा ये लान, ओ लान कहिके चिचियावत राहाय। लट्टे-पट्टे दमाद बाबू हा दू ठन रोटी ल खईस तहां संकोच के मारे कोनहो पलेट ल नई छुईस। संगवारी हा घलौ दमाद बाबू ल उठत देख के अपनो उठगे। मैं बड़ संकोच म भरगेंव। मोर पेट हा बने भरे नई राहाय तभो ले महुं ल उठे ला परगे। 
हात-मुंह ल धो के बइठक म पान सुपारी होईस। दामांद ल अराम करे बर दुसर खोली म जाए के आडर होगे महूं हा मितर ले छुट्टी मांग के महासमुन्द आए बर निकर गेंव। मोर पेट हा भरे नई राहाय। ऊंहा खाए-पीए के कमी नई रिहिस फेर का करबे। पेट भर नई खा सकेंव। सोचेंव बने असन होटल म खाना खाए जाय। कही के एक ठन बने सहीक होटल म गेंव, अऊ खाना के आडर देंव। जब खा के मुंह ल धोहूं कहिके काहात रेहेंव ओतके बेरा मोर आगू के केबिन ले परदा ला उचा के दमाद बाबू हा बाहिर निकरत राहाय ओ हा मोला देखिस अऊ मैं ओला देख के उठत रेहेंव तेन हा फेर लझरंग ले बइठगेंव। ओखर टेबल म जूठा भात-दार अऊ साग के पलेट मन परे राहाय।

-------------0-------------

लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

0 Reviews