छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: मोर सुआरी परान पीयारी

मोर सुआरी परान पीयारी

मोर परान पिआरी गोसईन ह जब ले मोर घर म अपन पबरीत चरन ल मढ़ईस, तब ले मोर धर के दलीदरी देवता ह परागे हे। पहिली रात-दिन कमावव तभो ले कंगाली ह छाएच राहाय। घर म एको दाना चउर-दार नई राहाय। मुसुवा भुखन मरय। त का करय मोर कपड़ा-ओनहा, कथरी-गोदरी मनल चुन डारय। घुस्सा म जब मैं मारे बर कुदावत त परवा-छानही म चघ के अपन कान अऊ मुंह ल मटकावत मोला चिढ़ावय। अब तो आगू-आगू लेसरी जीनिस मन माढ़े रहिथे। सुआरी ल देख-देख के न मोला भूख लागय न पीयास। लोगन के कहना हे कि कोठी म एक दाना नई रेहे ले भूखे-भूख लागथे। कहिथे-भाग मानी मन ल बने सुआरी मिलथे।

सबो ल नई मिलय। सिरतोन में भागमानी आंव। ओ मन बने सुआरी कब्भू नई हो सकय जौन मन अपन मइके ले जम्मों घर-गिरस्ती के जीनिस जइसे-टीबी, रेडिया, पलंग-सुपेती, सोफा, मिकसी, फीरीज, कुलर, अलमारी, गद्दा-तकिया, बरतन-बासन, नई लानय। ऐखर अलावा नगदी पईसा दुल्हा डौका के ददा ल अऊ खुद दुलहा के खीसा म डारथे, तौने ससुर तो समझदार कहाथे। मोला तो मुंह मंगा दिस मोर ससुरजी हा। किहिस-चल बता बेटा तोला का होना कहिके। मैं हा मोला कांही नई चाही केहेंव तभो ले किहिस- नहीं-नहीं लजा झन, का चाही ? मैं कले चुप मुड़ ल गड़िया के मड़वा तरि बइठे राहांव त कहिस-अरे तोर घुमें-घामे बर कोनों मोटर-गाड़ी तो लगबे करही न, कहिके अपन खीसा ले चार चक्का वाला गाड़ी के कुची ल मोर हात म धरा दिस। 

मोर जम्मों लाग-परवान अऊ संगी-साथी मन मोर डाहार गुर्री-गुर्री देखे लगिन। मैं ऊंखर गुर्री-गुर्री देखई म देखेंव ऊंखर आंखी ह काहात राहाय-अरे जोजवा टूरा कुची ल काबर झोंक नई लेवस ? बिना मांगे मोती मिलय, मांगे मिले न भीख। जब अपन होके देवत हे त झोंक ले। आवत लछमी ल लात नई मारना चाही। मैं का करवं झोंक लेंव। हमर ससुर किहिस- अऊ कभू पईसा-कऊड़ी या कुछू भी जीनिस के जरूरत परही त बिगन लजाय मांग लेबे। मैं सुन के गदगद होगेंव। जब-जब मोर सुआरी अपन ददा घर जाथें, तब-तब कांही कुछू लानबे करथे। कुल मिलाके मोर गोसईन ह संवहत लछमी ये। तेखरे सेती ओखर लाख बुरई ह मांफी हे। ओखर आय ले मोर घर के ओखर जम्मों कांटा मन घर छोड़ के अंते भागगें। घर म अब सांतिच सांति हे। जब ओखर कांटा मन राहाय त आय दिन घर म हरहर-कटकट माते राहाय। मोर सुआरी ल तो ओमन फूटे आंखी नई भावय। 

जब मैं ओ मन ल लहू-पछिना के कमई ल लान-लान के खवावत रेहेंव त बने काहाय। सुआरी के आय ले परागे अऊ गांव भर म ओखर चारी-चुगरी करत रहिथे। जब देख तब पटंतर देवत रिथे। किथे-बहू के आये ले ये टूरा ह डौकी के गुलाम बनगे, दाई-ददा, भाई-बहिनी ल पुछय नहीं। ये ला मुड़ढक्की बैमारी ह धर लेय हे। कभू तो पुछतिस खाये-पीये हौव ते नहीं, तुंहर देेह-पांव बने हे ते नहीं, तुमन ल कांही दुख-पीरा तो नई हे कहिके। मनापाड़े दाईज(दहेज) पाये हे, मेछरावत हे चंडाल ह। लखपति ससुरार ह कब तक ले तोर संग देही, तेन ल जीयत रहिबो ते देख लेबो। गरब होगेय हे-गरब येखर सुआरी तो सोज मुंह गोठियावय नहीं। करेला उप्पर ले लीम चघे।

काबर नई बखानही-बेटाच मन तो दाई-ददा के सहारा होथे। उहू ल पराय घर ले आय बहू ह अपन मुठा म धर ले लेथे त दाई-ददा के छाती म छूरी तो चलबे करही। ऊंखर सरि सपना ह टूट जथे। का इही दिनबर दाई-ददा ह लईका ल बियाथे, उनला पड़हाथे-लिखाथे, लाईक बनाथे ? जब लइका मन के पारी आथे, दाई-ददा के सेवा करे के वो हा त कुला म बाहरी बांध के अलगिया जथे।

संसार के सब दाई-ददा हा बहू-बेटा नाती-नतूरा के सुख भोगे के सपना देखथे। ओ मन रात-दिन इही संसों म बुड़े रिथे कि मोर औलाद ल कांही दुख-तकलीप झन होवय। बने-बने कमावय-खावय। बने ओनहा पहिरे। बने रद्दा म रेंगयं। दुनिया म हमर नाव जगावय कहिके। अपन मन भूख-पियास रहिके। औलाद कपूत निकर जथे, तेन ल कहूं का करही। सियान मन गुनथें मरे के पहिली नाती-नतरा के मुंह देख लेतेंव कहिके।

मोर दाई ह घलव अइसने सपना देखय। दाई ल बहु के बरदान तो मिलगे। कोनों जनम म बने करतम करे रीहीस होही तेखर सेती ओला ये जनम म दहेज वाली बहू मिलगे। ओ ह बहू नहीं संवहत देबी लछमी ये। सदा दिन जेन घर म अंधियारी घपटे राहाय तौन घर हा आज टिवलईट म जगमग-जगमग करत हे। मैं तो गुनथंव जब मोर बुढ़ापा आही त मैं एखर उपर एक ठन सोध ग्रंथ लिखिहौंव ताकि अवइया पीढ़ी ल ये बिसे म कांही गियान मिलय। गोसईन, मोला दाई के परम भगत जान के ओला बहुत दुख लागिस। अब हो ह रोज बिगन कारन के कारन मुंह-कान ल तोमरा सहिक फूलो के बइठे रहिथे। कांही कहिबे ते चांय ले चिचिआय लगथे। 

मैं तो ओखर अंतस के बात ल जानथंव। महू कच्चा गोली नई खेले हौंव। ओला खूस करे बर केऊ ठन उपाय जानथंव। दाई-ददा मन बिआये हे तेखर सेती लईका उपर ऊंखर पहिली हक बनथे। फेर सुआरी मन सात भांवर कीदरे रहिथें, तेखर सेती सात जनम के संगवारी समझ के गोइईया मन के बंधना म बंधायें रहिथें। जब ऊंखर मन होथे, तब डौका मन ल अपन अंगरी म नचावत रहिथें। घरवाली के गुलामी करई सब पुरूष मन के जनम सिद्ध अधिकार होथे। जौन नारी मन पुरूष के गुलामी नई कर सकय, ओ मन इनकलाबी होके मारे जाथे। अऊ फेर नारी के गुलाम कोन नई हे ? ऊंखर गुलामी करे म जौंन मंजा हे, ओ हलुआ पूड़ी म नई हे। इतिहास गवाही हे, जौंन-जौंन मन सुआरी के गुलामी करीन ओ शलाका पुरूस सुरूज सहिक आज ले चमकत हें। तुहला मोर गोठ म बिसवास नई हो ही, ते किरपा कर के अयना के आघू म ठाढ़ हो जावव।

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

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