छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: नावा सिरिसटी

नावा सिरिसटी

देव रिसि नारद ल अब ये सिरिसटी ह जुन्ना लगे लगिस। ओ चाहत राहाय कि हजारों बछर ले उही जुन्ना-जुन्ना घटना, कुछु नावा बदलाहट नई आवत हे। ओखर सोंचना सिरतोन आय। काबर कि ये संसार ह परिबरतनसील आय। सबो जीव-जगत हं बदलाहट चाहथे। संसार म कांही-कांही नावा होते राहाय… तभे जिनगीम गति आथे। नारद ह सोचिस- अइसे कुछु योजना बनाये जाये तेन म कुछु नावा घटना घटय अऊ ये जौन सिरिसटी म ठहराव आ गेय हे ओमा कुछ हलचल होवय, अइसे सोंचत बइठे राहाय। ओतके बेरा रितुराज बंसत के संगवारी मयारू फागुन महराज आगे। ओखर नावा-नावा रूपरंग मेछरावत मीठ-मीठ गोठ बात बड़ लोभ-लोभावन लागत राहाय। दुलहा डौका बरोबर संभरे राहाय। आते साठ नारद ल परनाम करत कहिथे, ‘तैं कइसे संसो म बुड़े बइठे हस ? का सोंचत-बिचारत हस महराज ? त नारद कहिथे, ‘का तोला संसो नइ लागय ?‘
नारद किथे ‘अब महा-परलय के बेरा आवत हें।‘ 
फागुन महराज चकरित खा जथे। किथे ‘मोला तो कांही समझ म नइ आवत हे, तैं का काहात हस तें ?‘
त नारद किथे, ‘तैं हा रितुराज बसंत संग रही-रही के राग-रंग अउ मसती म रात दिन बुड़े हस तोला काहां मालुम रही गा।  तोर तो बुध नास हो गेय हे।  अरे देखत हस ये सिरिसटी म कांही नावा कुछु होवत हे ?  उही जुन्नटहा, बिधाता के नाटक ह आज ले चलत हे।  लगथे ओखर नाटक के बुढ़ापा आ गेय है।‘
नारद के गोठ ल सुन के फागुन ह खलखला के हंस परथे। हंसई ह टेसु के फूल बरोबर बादर म बगर जथे।  ओतके बेरा हावा ह घलौ हांसीस, सुन्ना ह गोहार पारे लगथे। पारिजात म नावा पीका फूटे लगथे। नारद ल लगिस अब जड़ता परावत हे। ओखर तमूरा ह घलौ नावा तान सुनाये लगथे। तेखर मायने होथे हांसव, अब जड़ता ल गति मिल जही। हांसव, मिरतुक ल घलौ जिनगी मिल जही। 
अइसे भरत ल बतावत नारद कहिथे, ‘धनियवाद फागुन धनियवाद, तैं ये सिरिसटी ल महापरले ले बचा देय। अच्छा मैं चलव‘ कहिके तमूरा ल बजावत इंदरलोक डाहार चल देथे। 
इंदर ह अपन हजार हजार आंखी ले सची के खपसुरती ल धियान लगाके निहारत राहाय। नारद ल देखके अचरित करत संखा म परे परमान करत कहिथे, ‘आवव-आवव देव रिसि नारद आज कोन नावा लील्ला के सुरूआत करे बर आवत हावव ?‘ नारद ह हांसत-हांसत कहिथे, ‘तहूं नावा-नावा के गोठ करथस जी, तोर सरग म तो कुछु नावा नइ हे, उही जुन्ना कलप बिरीकछ, उही सनातन काल के अपसरा, अउ बुद्धि घलौ जुन्ना। इही जुन्ना बुद्धि ले तोला का जुआब दौ ?  आगिया देवव काबर आये हो, का बुता हे ?
नारद, ‘अरे आगिया-उगिया कांही नहीं, मैं तो भगवान भोले नाथ के काम से आय हौंव। तैं काली खचीत कैलास म आबे, उहे तोर नेवता होही।‘
नारद ह बिसनु लोक पहुंचथे। बिसनु भगवान नाग उपर सुते राहाय। नारद के तमूरा ल सुनके नींद उमचगे। लछमी ह गोड़ चपकत राहाय। कइसे आना होइस कहिके बिसनु ह पुछथे। 
नारद किथे,‘भोले नाथ ह माता लछमी संग तोला कैलास बलाये हे। बिसनु किथे काबर बलाये हे ?‘  ‘नारद किथे ‘अपन नंदी के बिहाव ल इंदर क कामधेनु संग तय करे हे।‘
बिसनु ह आज ले भोलेनाथ के बिहाव ल नइ भुलाये राहाय। जब माता पारबती ल बिहाय बर राजा हिमांचल घर जाथे त दुलहा डौका ल देख के सबे झन हांसत काहाय अई! यहा का दुलहा ये? अइसन दुलहा तो तीन जनम म नइ देखे हन।‘ बड़ अलकरहा बरात राहाय। 
नारद ह बरमदेव करा जाथे। बरमदेव ह सरसती माता संग बइठे बेद के नावा अरथ खोजत राहाय। नारद ल देख के पुछथे, ‘आज कइसे ये डाहार के सुरता आगे नारद ?‘ 
नारद किथे, ‘ संकर भगवान ह काली तुमन ल माता सरसती संग कैलास बलाये हे। का कुछु बिसेस हे। हां गनेश महराज के बिहाव के बिसय म काहात रीहीन। आज काल तो बिहाव-बर के तियारी करे जाथे।‘ बरमदेव कहिथे, ‘अरे। मैं तो गनेस के बिहाव के बिधाने नइ रचे हौंव, ओखर बिहाव कइसे होही ? ‘ 
नारद ह रेंगत-रेंगत किथे, ‘मैं का जानव, ओला तहीं जान। तोला भोलेनाथ के तिसरइया आंखी ले, ये तोर सिरिसटी ल बचाना हे, त तैं कोनो उपाय ल करबेच।‘ नारद ह खुद बिधाता ल संसो म पार देथे। नारद जी कैलासपुरी महादेव करा जाथे। महादेव समाधि म बइठे राहाय। माता पारबती ह नारद ल बइठे बर किथे। ओतका म महादेव घलौ अपन समाधि ले उठ के आ जथे। नारद ल बइठै देखके किथे ‘या तें कइसे आज रद्दा भूला गेय नारद? हमर कैलास डाहार कोनों आये ल नइ धरय कइसे आना होइस ? कोनेां नावा काही कुछु जरूर होवइया हे तइसे लागत हे।‘ 
नारद ह संकर ल परनाम करत किथे, ‘नारायेन-नारायेन तैं का काहात हस महराज कैलास ह तो मोर मनाकामना ठौर ये महराज फेर एक ठन अलकरहा बात बर मोर इंहा आना होइस हे।‘ भोलनाथ पुछथे का बात ये ?‘ नारद किथे ‘इंदरदेव के एक ठन आंखी ह कामधेनु के सिंग म कोचका के फूट गे, तेन पाये के भारी दुखी हे। ओ काहात रीहीस भोले बाबा करा एक ठन आंखी उपरहा हे उही ल मांगहू भले नइ दिखही ते झन दिखय फेर देखइया मन तो आंखी हे कइही।‘ 
भोलेनाथ हांसत किथे‘ ओला अक्कल देवइया तहीं होब नारद ? तीर म बइठे कातिक महराज घलौ हांसत राहाय। गनेस के तो पेट फूलत राहाय हंसई के मारे। नारद ह उपरछवा घुस्सा करत किथे ‘ कातिक कुमार तहूं अपन मॅजूर ल देखके राखबे। भगवान बिसनू मन काहात रीहीन-उंखर गरूड़ ह बुढ़वा हो गेय हे, कति कातिक कुमार के मॅजूर ल मांगहू कहिके। काली उहू मन अवइया हें। जम्मों झन कैलास म आही।‘
गनेस जी ह हांसत किथे, ‘तब तो मोर मुसुवा उपर घलौ कखरो नियत गड़े होही। अउ माता पारबती के बघवा उपर घलौ ललचाये होहीं।‘
नारद किथे,‘नारायेन-नारायेन बघवा के वाहन ल न तो सची ल बने लागय, न लछमी ल, न सरसती ल। रहिगे बात मुसुवा के, ओ तो देवासुर संगराम म का इंदर के संग दे सकही ? बरमदेव हा, ओखर नजर जरूर भोलेनाथ के नंदी उपर लगे हे, काहात रीहीन कि अब तो नंदी बुढ़ुवा हो गेय हे, भोलेनाथ ले नंदी के भीकछा लेयेच ल परही।‘
देवरिसि नारद ह जम्मो देबी-देवता, दुआरपाल, चंदा सुरूज, कुबेर नावा-नावा बाहना बना-बना के नेवत देथे। दुसर दिन जम्मो देवी-देवता मन कैलास म अमरथे। इंदर बरमदेव अउ बिसनु ल देख के कातिक समझगे, नारद के बात म दम हे कहिके। अपन संसो ल बुद्धि के देवता गनेस ल बताथें, ‘तहीं बता भइया मैं अपन मंजूर के रकछा कइसे करहूं। हमर पितासिरि ह तो भोला भंडारी अवघड़दानी ये, नंदी अउ आंखी दुनों ल दे दिही ओखर का हे।‘
गनेस जी किथे, ‘तैं संसो झन कर कही न कही उपाय निकरबे करही। माता पारबती ल अच्छा बने सुवादिस खाना बनाये बर कहि देबे ओमा भांग अउ धथुरा ल झन भुलाही डारे बर, थोकिन जादाच डारही।‘ 
जइसे केहे राहाय आइसनेच खाना बने राहाय। जम्मो झन बने पेट भर खइन दुसरइया तिसरइया ले-ले के। ओतके बेरा बिसनु ह अपन गोठ ल ढिलीस, ‘भोलेनाथ तैं अपन नंदी के बिहाव करे बर बने सोचे हस, मोर मन अइस। सिरतोन म कामधेनु ह नंदीच के लइक हे, दुनों के जोड़ी गजब के फबही।‘ 
भोलेनाथ ल अचरित होगे, फेर गनेस ल बड़ खुसी लागिस कहिते ‘सबे भांग-धथुरा के सेती आय, सब नीसा कहात हे।‘ बिसनु के गोठ ह उरकेच नई राहाय, बरमदेव किथे, -‘‘अरे हां ? भोलेनाथ तोला गनेस के बिहाव के का भूत सवार होगेय हे। पहिली बड़े बर तो सोंच।‘‘ 
भोलेनाथ के दिमाक चकरा जथे-का होगेय हे ये मन ल आज कइसे-कइसे गोठियावत हे कहिके माता पारबती ह मया के मारे किथे, ‘बरमदेव, बर-बिहाव के संसो कइसे नइ होही, लइका मन बाढ़ जथे त दाई ददा ल संसो होबे करही। सबो मन अपन बेटा ल नारद बरोबर बाल बरमचारी थोरहे राखही।‘
येती बर इंदर के आंखी ह बंगला पान कस लाल हो गेय राहाय। भांग के निसा म ओखर सरि अंग हा आगी बरोबर बरत राहाय। भकवाय किथे, ‘मोर आंखी के रकछालतो करौ, ओतके बेरा कातिक कुमार ह गनेस के कान म फुसुर-फुसुर किथे, ‘देखत हस ये परपंची ल कइसे ओखी लगावत हे तेन ल ?‘
बिसनु घला निसा म झुमरत कातिक ल मया करत पुछथे, ‘‘तोर मजूर के का हालचाल हे, बेटा कातिक कुमार ? कातिक ह डेर्रावत-डेर्रावत किथे, ‘सब आपे मन के किरपा अउ असीस हे भगवान।‘ जम्मो देवता मन माता पारबती के बनाये बड़ सुवादिल भोजन ल मुंह ल चटा-चट बजा-बजा के खइन। जने मने केउ बछर के भुखाये हे तइसे। भोलेनाथ के परसादी ह जम्मों झन ऊपर अपन असर जमाये लगिस। इंदर ह काहीं गोठियाहूं कहाय त ओखर जीभ ह चटक जाये। गोठ ह अंते-तंते होयल धरय। बरमदेव, बिसनु अउ महेस संग काय-काय आनी-बानी के गोठियावत लछमी, सरसती अउ सची ह माता पारबती के बड़ई गोठियावत बइहाय सहिक होंगे। ओती बर जब नंदी ह सुनिस कि मोला बरमदेव ह भोलेनाथ मेर मांगत हे कहिके त भोलेनाथ के चरन के धुर्रा ल अपन खुर म खुरचके दसों दिसा म उड़ाये लगथे दिनमान ह संझा कस लगे लगथे। गनेस ह कोनों नावा गम्मत के संखा म मउनी होगे।
ओतके बेरा नारद ह फागुन महराज संग कैलास पहाड़ म पधारथे। देवता मन ल इसारा करत किथे,‘देखथस फागुन महराज मैं तोला मन भरके अनंद मनाये बर, तोर जिनगी के महात्तम ल बढ़ाये बर ये नावा गम्मत के रचना रचे हौंव। आज तैं मगन होके नाच, गा, आनंद मना। महूं अपन तमूरा म नावा राग बजावत हौंव।‘
ओतके बेरा सबो कोती मतौनी पुरवाही चले लगथे। कैलास के बरफ के झरना म केसरईया रंग उमड़ गे। बरफ म ढकाय ऊंच-ऊंच पहाड़-डोंगरी म आनी-बानी के फूल के झोरका मन गुलदस्ता सहीक दिखे लगथे। 
नारद के तमूरा के तार ह असइे राग बजाये लगिस, ओला सुनके कातिक महराज के मजूर ह अपनडेना अउ पूछी ल छतिरिया के नाचे लगथे। सब देवता मन अइसन खुसी के बेरा म एक दुसर संग गला पोटार के भेंट-पैलगी करें लगथें।
भोलेनाथ अपन टोटा म लपटाये सांप ल बिसनु के गर म डार देथे।
बरमदेव ह सुग्घर जसलोक गाये लगथे। इंदर ह बादर मन ल अमरित बरसा के फोहारा गिराये बर कहि दिस। गनेस ह सुग्घर अपन सोंड म फुल के बरसा करें लगथें। ओ बउछार ले अकास म सुग्घर इंदर धनुस उगे, जाने माने दिसा मन ह एक दुसर उपर रंग गुलाल के पिचकारी मारत हे तइसे लगे लगिस।
किथें उही बेखत ले जब-जब फागुन हा आथे, तब-तब ये धरती म पबरित खुशी ल फागुन तिहार के रूप म मनाये जाथे।

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

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