छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: निन्नानबे के फेर

निन्नानबे के फेर

 ‘तें सबर दिन थोरहे कमा सकबे जब सियानी आ जही, गोड़ हांत थक जही उही समे म थोक-थोक जोरे रहिबो तेन ह काम आही। बिगन रूपिया के संसार हा नइ चलय।‘

एक झन सेठ के परोस म एक झन गरीब दरजी राहाय। ओहा थोकिन कमावय तभो ले बड़ सुखी राहाय। डइकी-डौका दु परानी राहाय लोग-लइका नइ राहाय। रेहे बर नानकीन कुरिया ! ससती के जबाना, बने-बने खावयॅ, बने-बने पहिरे ओढ़े। धन जोरे के सवाले नइ राहाय।

येती बर सेठ के भारी कमई राहय तभो ले ओ मन बने-बने खावयॅ न बने पहिरे-ओढ़े। ऊंखरो लोग-लइका नइ राहाय। धन जोरे के आदत राहाय। बड़ कंजूस राहाय।

सेठइन हा एक दिन खिरकी डाहार ले दरजी अउ ओखर डौकी ल बने-बने खावत देखिस, ओनहा-कपड़ा ल तो नवा-नवा पहिरत-ओढ़हत रोजे देखय। ओ मन हमेसा खुस राहाय। सेठ घलो ओतका धन-दोगानी राहाय तभो ले हायच-हाय राहाय।  धन जोरे के संसों के संगे संग एक ठन संसो अउ राहाय कि हमर धन ल कोन खाही ?  लोग-लइका तो ऐको झन नइ राहाय।  ओखरे संसो भारी राहाय।

एक दिन सेठइन हा सेठ करा परोसी दरजी के सुखी जीनगी के गोठ करत कहिथे ‘‘हमर ले जादा तो इही मन सुखी दिखथें, गरीब हे तभो ले।  कमती आमदनी म अतक सुखी कइसे हे ?‘‘

सेठ कहिथे - असल बात ये हे कि ये मन निन्नानबे के चक्कर म फंदे नइ हें।  ओ का होथे सेठानी पुछथे। त सेठ कहिथे - ‘‘अइसे मुंह जबानी बताये म तोर समझ म नइ आही, ये मन ल निन्नानबे के चक्कर म फंसा के देखाये बर परही। तब तोर समझ म आही।‘‘ एक दिन सेठ ह एक ठन फरिया म निन्ननबे रूपिया ल गंठिया के दरजी के अंगना म फेंकवा देथे।  बिहनिया दरजी के डौकी ल ओ गठरी मिलीस। गठरी ल दरजी ल देखइस। दरजी हा गठरी ल खोल के देखिस त ओमा निन्नानबे रूपिया राहाय।  दरजी कहिथे - चील-कौवा मन ककरो ल लान के हमरे अंगना म छोड़ दिस होही। मैं येला गांव के मुखिया ल दे के आ जथों जेकर होही तौंन ले जही।

दरजी के डौकी कहिथे - राहना अतक का तड़तड़ी हे तेन मं, जब एकर कोन्हो मालिक ठाढ़ हो जही त भले दे देबो। नहिते भगवान ह तो हमन ल देइ देय हे। ‘‘कुछ दिन के गेय ले दरजी के डौकी किथे - तैं सबर दिन थोरहे कमा सकबे। जब सियानी आ जही गोड़-हाथ थक जही उही समे म थोक-थोक जोरे रहिबो तेन ह काम आही। ‘‘

दरजी किथे ‘- ‘‘फेर तैं जोरे-धरे के गोठ करे ?  धन जोरना दुख सकेलना ये, बुढ़ापा म भगवान कहुंचो चल दिही का ?  जइसे अभीन देवत हे तइसे बुढ़ापा म घलो देही।‘‘

तै तो फक्कड़राम गिरधारी च अस, डौका जात अस, कइसनो करके दिन ल गुजार लेबे, फेर डौकी जात बर तो जीनगी पहार हो जथे।  ऊंकर मेंरन हजारो दुख आथे, अइसे दरजी के डौकी किथे।

दरजी किथे-‘‘तें कइसे समझ लेस कि सकेले पूंजी रही तभे बुढ़ापा बने रही ?  आदमी करा पूंजी सकलावत कतका टेम लगथे ?  रूपिया के सकल म ये ‘टका‘ मन के तोला अतका भरोसा होगे, भगवान के नइ हे ?‘‘

 ‘‘भगवान के भरोसा तो हाबेच, फेर बिगन रूपिया के ये संसार हा नी चलय।‘‘ देख हमर परोसी सेठ मन ल, अतक बड़ हवेली ठाढ़े हे, अतेक नवकर-चाकर हे, डौकी किथे। 

 ‘‘तें समझथस सेठ मन बड़ सुखी हें ?  पुछबे, एको दिन सेठइन मेर।  रूपियच सब कुछ हे त एक ठन लइका काबर नइ करलेवय।‘‘

जौन भी होवय मैं तो कहिथंव पइसा जरूर जोरना चाही। ‘‘मोला अइसे लागथे, तोला निन्नानबे रूपिया ह तोर मन म पइसा जोरे के धुन सवार कर देय हे।  दरजी किथे।‘‘

 ‘‘तेखरे सेती अइसन जंजाल ल मैं घर ले बाहिर निकारना चाहत रेहेंव।‘‘ डौकी अपन जिद म अड़े राहाय, अउ रोज जौंन कमई होवय तेन म थोर-थोर बचा-बचा के ओ निन्नानबे ल बढ़ोय लगिस।  कुछ दिन के गेय ले ओहा एक सौ होगे।  त ओला बड़ खुसी लागिस।  मने-मन काहाय- ‘‘आज तो मोर मेर पुरा सौ रूपिया हे, मैं चाहाव त कई ठन जेवर, ये चांदी के रूपिया ले बनवा सकत हौंव।‘‘

धीरे-धीरे ओ रूपिया बाढ़े लगिस।  अउ ऊंकर सुख घटे लगिस।  खवई-पहिरई म कमी होय लगथे।  दुनों डौकी-डौका के चेहरा म अब ओ चमक-दमक नइ दिखय, जइसे पहिली राहाय।  ऊंकर चेहरा म संसो के बादर छाये राहय।  सेठ ह एक दिन सेठइन ल पुछथे -‘‘कइसे हमर परोसी मन के का हाल-चाल हे ?‘‘

सेठइन किथे - अब तो हमरे सरीक ऊंकरो हाल हो गेये हे।  ‘‘हाँ... इही आय निन्नानबे के फेर।- अब सेठइन जानिस निन्ननबे के फेर कइसे होथे तेनला।

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online

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