छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: कुंआरी कुंआरा संघ

कुंआरी कुंआरा संघ

कुंआरा मन ल घरवाली मिल जथे, फेर रेहे बर किराया के घर नई मिलय। तहूं मन ल कहूं आने साहार म रेहे के सौंभाग मिले होही त येखर अनभो जरूर होय होही। महूं ह जब गांव ले साहार आयेंव, काही नान-मून नवकरी मिल जही ते करहूं कहिके, त मोला रेहे बर किराया घर नई मिलीस। एक झन बिचारा नवकरिहा संग चिनहारी होईस। मैं अपन दुख ल ओखर सो गोहरायेंव त ओ हा मोला अपन संग रेहे बर तियार होगे। उहू ह डिड़वा राहाय। जब पहिली-पहिली उहू साहार आये राहाय त अपने चिनहार संग राहात राहाय। ओ हा परवार संग राहाय। ओखर बदली होगे त, अब ओ घर म येकरे राज होगे। घर मालिक ह अंते साहार म राहाय।  

घर के देख-रेख होही कहिके येखर जुम्में म राख देय राहाय। बड़ जबर घर ये, अड़बड़ अकन खोली राहाय। मैं जेखर संग राहात रेहेंव तेखरो बदली होगे। तब ले ये घर म मोरे राज होगे। कतको झन किराया मंगईया आवयॅ, में नई हे कहिके ओ मन ला भगा देववं। एक दिन एक झन किराया पुछत अईस। ओ हा मेंडम सहीक दिखत राहाय। बड़ सूट-बूट अऊ करीया तसमा लगाये राहाय। मोला देख के कहिथे-अच्छा तहीं ये घर म रहिथस। घर तो बहुत बड़ हे।‘ मैं ओखर सूट-बूट अऊ गोठिअई ल देख के सकपका गेंव। ओइसने काहात घर भीतरी नींग के घुम-घुम के खोली मन ल देखे लगिस, -‘हॉ अकेल्ला रेहे बर कोई बुरई नई हे, रेहे जा सकत हे। मैं कहेव‘इहा मही भर अकेल्ला रहिथंव अऊ कोनहो माई लोगन नई राहाय।‘ ओ कहिथे का होईस त महूं तो अकेल्ला हावव, ओखर गोठ ल सुन के में कापे लगेंव।‘ 

ओ किथे-‘तैं डेर्रा झन, मैं इंहा इसकूल म बदली होके आये हौंव, मैं लईका मनल पढ़ाथंव, अऊ तैं का करथेस ?‘ मोला पुछिस, मैं केहेंव-‘मैं काहनी-कविता लिखथंव।‘ ओ किथे-‘काबर, अऊ कुछु काम-बुता नई हे?‘ मैं केहेंव-‘का कविता-कहिनी लिखई ह बुता नो हे ?‘ 

ओ पुछिस -‘तोर के झन डौकी-लईक हे ?‘ मोर भाग म अभी डौकी-लईका कहां हे?‘ ओ किथे-‘अभी तक ले तै डिडवाच हस?‘ ‘ह-हो। अऊ तैं ह ?‘ मैं पुछेंव त किथे-‘महूं अकेल्ला हौंव‘ अटल कुवांरी। 

मैं पुछेंव-‘ये घर ह तोला बने लागिस ?‘ ओ किथे-‘बने हे फेर ये परछी म एक ठन परदा डारे बर परही, लगा लेहूं।‘
ओ हा दुसर दिन मेटाडोर म अपन जम्मों समान ल भरवा के ले लानिस। मैं कलेचुप घर भीतरी दबक गेंव। ईतवार के दिन राहाय। दिन भर भीतरी म भीड़िंग-भाड़ंग होवत राहाय। संझा बेरा बाहिर निकरेंव, त देखथंव चौंक-चाकर परछी म पाटिसन लग गेय राहाय। घर के माई कपाट(गेट) के एक कोती बर ओखर नाव के तकती ठोंका गेय राहाय। ओमा लिखाये राहाय, कु.परेमा साहू एम.ए.। 

मैं एक कोनहा म ठाढ़ हो के ओखर नांव के महतम उपर बिचार करत रांहव। ओतके बेरा पांच-छे झन बने पहिरे-ओढ़े डौकी मन चड़बड़ चड़बड़ गोठियावत आत रहय। ओ मन कुंआरी राहाय, जम्मों झन झरझर करत बाड़ा म अमईन।  ऊंखर साड़ही के सरसरई, चप्पल-पनही के चटक-मटक, खड़ांग-खड़ांग बजई अऊ हिनदी संग मींझरा अंगरेजी गोठियाई, अइसन मटमटावत राहाय ते झन पूछ। मैं ह फेर लकर-धकर घर भीतरी नींग गेंव। 

घर भीतरी ले ऊंखर मीठ-मीठ कोईली कस बोली ह जने-मने रेडिया म गोठियाथे, तइसे भीतरी म गंजमीजांत राहाय। ओ मन काय-काय गोठियावत राहाय, तेन ह सब मोला सुनावत राहाय। ‘परेमा दीदी तोर बगल वाला खोली म कांही कुकुर-बिलई उ पोसे हस का, देखे म तो पोसवा दिखत हे, फेर येखर मन के का भरोसा। थोकिन देखव का जा के ?‘

 ‘नहीं बहिनी राहान दे। आजे पहिली दिन ये। आ...ले चाहा पीअव।‘
मैं भगवान ल धन्यवाद देंव। हवई हमला होवत-होवत बांचगे। मुड़ी फूटे ले बांचिस, तेखर खैर मनावत, मोर बारे म जौंन बड़ई सुनेंव, तेन ल भुलाये बर रेडिया ल चालू करके सुने लगेंव। गाना बाजत राहाय हम आज कहीं दिल दे बैठे‘, मैं ढनगे-ढनगे आंखी ल मूंदके गीत के मायने खोजत राहाव। ओतके बेरा उदुपले सेंडिल के खट-खट ल सुन के, चमके, उठके बइठ गेंव। 
 ‘ये तैं रेडिया ल बंद तो कर ?‘
काबर ?
 ‘बगल म सरीप माई लोगन मन रहिथें, तैं अइसन चालू छाप गाना ल नई बजा सकस।‘
-‘देख ओ बाई। मोर घर, मोर रेडिया अऊ मोर काम, ये सबो के मालिक मैं। मोला अपन घर भीतरी सिनिमा के गाना सुने के अधिकार हमर देस के संविधान ह देये हे।‘
मैं काहात हौंव-तैं जब पाबे तब रेडिया नई बजा सकस।‘ 
 ‘काबर नई बजा हूं ? का मोर रेडिया ह चोरी के तेमा ? मैं कभू-बजावव तोला का करे बर हे ? अब तैं जा सकत हस-नमसते। 
सेंडिल के खटर-पटर होईस, ओ मन बाहिर निकर गें।
नावा परोसिन के पहिली दिन रीहीस, एक अधियाय ह उरकीस।
दुसर दिन मैं पेपर पढ़ के उठत राहाव, ततके बेरा परेमा मेंडम दौड़त अईस, मैं डेर्रागेंव ये आफत ह बड़े फजर ले फेर आगे भगवान कहिके। 
 ‘तैं कुकुर पोसे हस का ?
 ‘नई पोसे हौंव।‘
 ‘देख मोर नेम पलेट ल मुंह म चपक के कुकुर ह जावत हे, थोकिन धर तो कुकुर ल, नेम पलेट ल छोंड़ा।‘
 ‘मोला डर लागथे, अभियास नई हे कुकुर पकड़े के।‘ तैं काबर परसान होवत होबे, ओ हा खुदे छोड़ दिही। नावां-नावां ये कहिके चिनहारी करत हे।‘ 
‘तोला ठट्ठा सूझे हे, काकर कुकुर ये, येला गोली मार देतेंव तइसे लागत हे।‘
मैं कुकुर के मालिक होतेंव त बतातेंव।‘ परेमा मेडम ह गोड़ पटकत रेंग दिस। मैं हाफत-हाफत सुरताये लगेंव। ये रात-दिन के खट-पट हा मोला सुहावत नई राहाय, फेर कंरव ते कंरव का ? घर ल छोड़ के जा नई सकव। रोज के ओखर संगवारी-सहेली मन के आभा मरई, जब पाये तब मोर गोठ ल करयं, अऊ खलखला-खलखला के हांसय। डौका जात के निंदा सुन-सुन के कान पाकगे। अइसे लागय जइसे ये संसार म जतका डौका जात हें, तेखर मन ले डौकी मन ल अदावट हे। पहिली तो मुही ल गारी देंवय, अब सबो डौका मन ला देथे, तब मोला संतोष लागथे। कि महीं भर अकेल्ला नई हॉंव।
मोर बगल खोली म जौन गोठ-बात होवत राहाय तेन ल सुन के मोर मन म ललक सहीक होगे, मैं रोज देवाल म कान टेंड़ के ऊंखर गोठ ल सुनन भाये। मोला एक ठन जबरदस्त फायदा होईस कि डौकी मन, डौका मन बर, का सोंच रखथे। तौन समझ म आगे। 
ऊंखर काली के बैठका जबरदस्त रीहीस। ओमन एक ठन संघ के गठन करीन, ओखर नाव हे ‘अटल कुंआरी संघ।‘ ओमन जीनगी भर कुंआरी रहिबोन कहिके परसताव पास करीन। परेमा मेडम ल संघ् के अधियच्छ चुनीन। दुसर दिन आगू म एक ठन तकती टंगागे। ओ डाहार ले अवइया- जवइया मन तकती ल पढ़ के मोर मुंह-मुंह ले देखय, संखा करत। मोर दसा देखनी होगे। मेडम के सहेली मन के अजादी बाढ़े लगिस। ओमन बिगन मोर ले पूछे खोली ले खुरसी-टेबुल, किताब कलम, अऊ काही जीनिस ल लान के बऊरें। मैं ओमन ल बरजव त काहाय-‘का होही त खीया जही ? लहुटा देबो, नोहर के आय ते ? खुरसी के राहात ले मैं भुइंया म बइठव।‘ उचा के लानत घलौ नई बनय। ऊखर उतिअईल मोला अनमस हार होगे। 

एक दिन खिसिया के महूं अपन संगवारी मन मेंर सुल्लाव मांगेंव। ओमन फोकट म नई देवन कहिन, त मैं एक दिन ओ मन ल चहा के नेवता देयेंव। संझाा बेरा मोर जम्मों संगवारी मन दल के दल पेलिन। घर म ऐको ठन खुरसी नई राहाय, इंहा तक चाहा के गंजी, दुद, सक्कर, चाहपत्ती, कोप-सासर, गिलास, इसटो, जम्मों ल डोहार डारे राहाय। संगवारी मन ल केहेंव,‘ मैं कुरसी मन ल लानत हौंव‘ त कहिथे‘ अऊ काबर मेहनत करबे चल न ऊंखरे घर डाहार बइठबोन।‘
संगवारी मन संग जब मैं ऊंखर बइठक म गेंव, त ऊंखर बइठका चलत राहाय। अतक झन डौका पीला मन ल देख के जम्मो झन रटपटाके अपन-अपन खुरसी ले उठगें। 
 ‘तुमन चमाके झन, मैं अपन संगवारी मन ल चाहा पालटी देय हौंव, फेर मोर तो सबे समान ह इंहा आ गेय हे। खुरसी, पलेट-पियाला, काहीं नई हें। आज हमूमन ल चाहा-पानी दे देतेव ते बने बन जातिस।‘ संकोच करत परेमा मेडम कहिथे। ‘बइठव-बइठव बने बात ये का होही।‘ मोर संगवारी मन खुरसी म बइठीन। चाह के कोप-पलेट बाजे लगिस।  उन जम्मों झन हमर मन के सेवा म लग गें। कोनों पानी त कोनों चाह अमरे लगिन।  संगवारी मन एक घांव चाह ल सुडकत जावयं अऊ बड़ई मारत जावयं, ‘आ हा ... क्या चाय बनी है यार, मानना पड़ेगा, एक चाय का मैं पांच रूपये भी दे सकता हूं‘ काहात हे। 
दुसरा कहत हे-‘ तै परेमा मेडम के नमूसी झन कर अइसन चाहके किमत नई लगाय जा सकय।‘ महूं काबर पाछू रहितेंव, सब डौकी मन सहीक, परेमा मेडम घलौ अपन बड़ई सुनके गदगद होगे, ओखर गोरा गाल ह ललियागे। 
चाहा के बड़ई करे के बाद संगवारी मन किथे-‘तुमन ल देखके हमूमन समीति बनाय हन, हमर समीति के नाव हे-‘अटल कुंआरा संघ‘ तुमन ल कोनों इतराज तो नई हे न ?‘
परेमा मेडम बड़ अड़घप म परगे, अपन संगवारी मन डाहार देखथे, कोनों ल इंकार नई रीहीस। त परेमा मेडम किथे -‘हमन ल भला काबर इंकार होही।‘
चाहा बर एक घांव फेर धन्यवाद दे के हमन उठ गेंन।
दुसरइया दिन हमरो संघ के तकती टंगागे। ऊंखर तकती के बगल में। अटल कुंआरी अऊ अटल कुंआरा संग के सोर ह मोहल्लच म नहीं साहार भर म होय लगिस। कवि सम्मेलन, मुसायरा, सिनेमा के गाना अऊ आनी-बानी के गोठ-बात रात-रात भर चले लगिस। 
अभी हपता ह पुरे नई पईस, एक दिन परेमा मेडम बिहनिया ले आ के किथे-‘तोर करा एक ठन बात कहना हे।‘
मैं खटिया ले उठत केहेंव-‘हां गाठियान, का बात ये त।
 ‘तोला रोज रोज के ये कुमेटी सकलई ह बने लागथे ?
 ‘मैं केहेव- नहीं।‘
 ‘त काली ले महू अपन सहेली मन ल मना कर देथवं।‘
 ‘महू आजे ले बंद कर देंव।‘
 ‘मैं सोचत हौंव, ये तकती मन ल घलौ ओ मेर ले हेर के फेंक देना चाही। तोर का कहना हे 
 ‘मैं तोर बात म राजी हौंव। दुन्नों तकती ल आजे मैं चुलहा म डारत हौंव।‘
 ‘देख हमन येके घर म रहिथन, एक दुसर के सुख-दुख के धियान राखना चाही।‘
 ‘परेमा जी तै तो देबी आस, भला तोर राहात ले तकलीप कइसे होही ? मैं ये बीच के पाटिसन ल घलौ हटाना चाहात हौंव, तोला इंकार तो नई हे ?
‘दु हिरदे के बीच म कोनों देवाल नई रहना चाही।‘ 
परेमा मेडम तो चल दिस, फेर ओखर आज अतक मयारूक-गुरतुर गोठ ह मोर हिरदे
म बस गे। दिन बुड़ताहा संगवारी मन सकलईन मैं मुड़पीरा के बहा करके टरका देंव। 
येती बर परेमा मेडम घलौ अपन सहेली मन ल बने नई लागत हे कहिके बहाना कर दिस
ओखर सहेली मन के कांव-कांव ह बाहिर गेट मेर ले सुनावत राहाय। ऊंखर गेये ले मेडम मोर करा आ के कहिथे-‘तोर मुड़ पीरावत हे, दे मैं चपक देथव।‘
 ‘तैं काबर तकलीप करबे, फेर परेमा मेडम नई मानिस, ओखर कोअर-कोअर अंगरी मन मोर चूंदी ल साहलावत राहाय। मैं सिरतोन के रंगिन दुनिया म कींदरे लगेंव।
दुसर दिन संझा दुनों सभा के सदसिय मन सकलईन, ऊंखर आगू म एक ठन नेवता कारठ आ गे।
मोर मयारूक संगवारी हो, हमन दुनों झन कुंआरी-कुंआरा बरत ल टोर के पति-पत्नी बने के परन कर डारे हस अऊ तुहंर असीस पाये के आसा करत हन।‘
फेर हमन ल पोठ असीस घलो मिलीस, आज ल हमन एक दूसर ल झेलत हन।‘

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

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