छत्‍तीसगढ़ी व्‍यंग्‍य: बसंत आगे फागुन आगे

बसंत आगे फागुन आगे

मोर जीनगी म ऐसो छयसवां बसंत अवइया हे। अऊ उहू चल देही। मैं थोरको नई जानेंव। धन भाग मोर गोसईन ह बाजार ले पं.बाबूलाल चतुर्वेदी के पंचाग वाला कलेंडर ल लान के परछी म टांग देय हे। तेन ह मोला सुरता देवा दिस कि आज तोर जीनगी म साठवां बसंत अवइया हे कहिके। मैं ओला देखे बर ललचावत रहिथंव। जइसे कोनहो बिरहीन ल ओखर जोड़ी के घर आय के आस लगे रहिथे। कखरो आय के आरो पाथंव त अइसे लागथे कि ओदे आवत हे तौने होही कहिके साव-चेत हो जथंव। ये गुनके कि कोनजनी कब के फेर उहीं पांव लहूट झन जाय। मैं ओला आज ले चिनहे नई हॉव। कोन जनी ओ ह मोला चिनहत होही धुन नहि ते ? केऊ घांव ले सोंचथंव आही त कपाट ल तो बजाबे करही, हुंत तो कराबे करही। अइसने थोरहे रेंग दिही। नावां-नावां मंतरी मन सहीक। में ओला चिनहे-जाने रहितेंव तक अइसने कब्भू नई जावन देतेंव। अइसे-जइसे गजब दिन म आय गोंसईया ल ओखर गोसईन ह जल्दी नई जावन देवय। 
एक दिन ओखर बाट जोहत आधा रात ले जागत राहांव। कब नींद परगे ते मैं जानव नहीं। उदुपले का जती ह भड़-भड़ईस त झकना के उठेंव। खोली म अंधियार राहाय। मैं अचरित खागेंव बिजली ल तो बुताय नई रेहेंव। कइसे अंधियार होगे कहिके। का ओ बसंत ह आ के बुझईस होही का? मैं संखा करत बटन ला टमड़ के देखेंव। ओ तो चपकायेच राहाय। त मैं सोचेंव ये बिजली वाला मन बेरा चिनहे न कुबेरा जब मन होथे तब लईन ल गोल कर देथें, बड़े-बड़े मिल वाले मन बर कोई कटौती नई होवय। गरीब मन अंधियार म रहि लेथन। 
मैं अंधियारे म ओनहा-कोनहा ल टमढ़ेव, बसंत ह आके कले चुप बइठे होही कहिके। पठेरा म हांत बत्ती माड़े राहाय तौनों ल नई बारेंव। ये सोंच के कि कहूं आ के बइठे होही ते झन भाग जाय कहिके। उदुपहा मोर हात म कखरो लाम-लाम चूंदी वाला मुड़ ह छुवईस। मैं ओखर सरी देंहे ल टमर के देखेंव। ओ ह भारखाम चेलिक राहाय। मैं खुस होवत ओला फुसुर-फुसुर केहेंव, ‘का तहीं बसंत आस जी?‘ ओ कहिस, ‘हॉ, मही बसंत आंव।‘
मैं अचमहो करत फेर पूछेंव, ‘कस जी, तैं अंधियार म कइसे आथस ? दिया उ ल बारवॅ का? त ओ झपले कहिस- ‘अंहा... अंहा दिया ल झनिच बारबे, बड़ अलकरहा हो जही। मैं अइसना म तोर घर कभू नई आहूं, अऊ सुन-मोला कभू चिनहे-जाने के कोसित घलौ झन करबे। तोर घर तो बाबुलाल कलेंडर हे न ? उही म देख लेय कर जी। मैं कब अवइया हौंव तेन ल, मोला देखबे तभे पतियाबे ?‘
मैं केहेंव, ‘अरे भइया बसंत, मैं तेा सोंचत हौंव कि तोला संगवारी बनाहॅव कहिके। फेर तोला चिनहे-जाने नई हौंव, कौन मुहरन कइसे हे तेनों ल नई देखे हौंव, त कइसे बनही ?‘ ओ कहिथे, तहूं बड़ अलकरहा हावस जी, अरे रेडिया अऊ टीबी देखथस नहीं, ओमा चिट्ठी के दुवारा मित्रता होथे नहीं, ओ मन कब एक-दुसर ल देखे सुने रहिथें तेन म। लोगन देस-बिदेस म चिट्ठी ले मित्रता करथें अऊ कांही संखा हे तेन म ? मे। केहेंव, ‘नहीं-नहीं ओइसना बात नो हे, भला मोला काबर भरम होही ? दुसर मन ल तो अतको नसीब नई होय हे। उहू मन ल कलेेंडर देख के मालुम पर जथे कि फलाना दिन अवइया हे कहिके फेर आज ले दरस काहां करे हें। बने हे अइसने अंधियारें म आ जाये कर।‘ 
ओ कहिथे, ‘ले त, मैं जावत हॅव, अऊ संगवारी मन संग भेंट करे बर हे।‘ कहिके टाटा-बॉय-बॉय, सी यू काहात चल दिस। ये बेखत मोर जीनगी के अंगना में साठवां खेप अमाय हे बसंत ह, ओ बाबुलाल कलेंडर के हिसाब म। ओखर ले भेंट होय ले में इही भोरहा म रेहेंव कि अब मोर दसा ह बने सुधर जहीं, फेर मोर भाग म कांहा ? न आमा मऊरावय न कोईली कुहकय, न लाली-गुलाली, फुल फुलय न चारों डाहार माहार-माहार करय। कवि-लेखक मन फोकटे-के फोकटे बसंत के बड़ई करथें। न कोनों गरीब के जीनगी म बसंत के बहार दिखय। सरकार-सेठ साहूकार मन के जीनगी म सदा बसंत रहिथे। 
पथरा-लोहा अऊ सिरमेंट के ऊंच-ऊंच माहाल के टीप म कोईली बइठत होही। सरसों के पीवरी सपना होगे। कोजनी मोर फुटहा भाग के सेती डेर्रा के बसंत लहुट गिस होही। 
मैं रोज रात के अंधियार म घर के कोनहा-कोनहा ल टमरथव। कभू भात के जुच्छा ढोमना टमढ़ाथे त कभू जुच्छा चऊंर घरे के लोटना ह, आजे उरकीस त ओला गोसईन ह गोबर म लीप के मड़ाय हे। 
दुसर कोनहा म टूटहा जुन्ना पेटी, जेन म मोर तिबल एमए के डिगरी। ओ मोला आज ले भर पेट-पसिया नई पीया सकीस। तेखर सेती में ओला केऊ बच्छर होगे अल्थाये-कल्थाये तक नई हौंव परे हे। पेटी उपर जइसे मोर हांत परीस, ओखर टूटहा ढंकना ह भड़भड़ावत भुइंया म गिर परीस। 
गोसईन ह लईका ल घर के टूटहा खटिया म सुते राहाय चिचियईस हांत... रोगहा कुकुर ह नींग गेय हे, जुच्छा ढोमना ल चांटे बर। मैं कलेचुप सांस ल धीरे-धीरे छोड़त-लेवत बसंत ल टमड़त दुसर कोनहा डाहार गेंव। मोर हात म फेर उही लाम-लाम चूंदी वाल ह धरागे। 
 ‘तैं....?‘
मैं केहेंव। 
त ओ कहिथे, ‘हां.... मैं।‘
मैं केहेंव, ‘अब का करे बर आय हस इंहा ?‘ ‘चल जा भाग इंहा ले, मैं तोला संगवारी नई बनाना चाहांव।‘
ओ कहिस, ‘माफी देबे संगवारी, मैं ओ बेखत लबारी मारे रेहेंव बसंत आंव कहिके। मैं नो हंव बसंत।‘ ‘त कोन आस ?‘ मैं पुछेंव। ओ कहिस, ‘मैं गरीबी, भुखमरी-बेरोजगारी आंव। तोर हमर मितानी तो केऊ जनम के हे। तोर मरे के बाद तोर अवलाद संग घलौं रहूं। तोर ले पहिली तुहर पुरखा मन संग रेहेंव भला मोर राहात ले ओ बसंत के का बिसात ? जौंन ये घर म अमा जहीं। ओखर ठऊर तुहंर भाग म नइ हे।  न आज न काली।‘

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लेखक का पूरा परिचय-

नाम- विट्ठल राम साहू
पिता का नाम- श्री डेरहा राम साहू
माता का नाम- श्रीमती तिजिया बाई साहू
शिक्षा- एम.ए. ( समाजशास्‍त्र व हिन्‍दी )
संतति- सेवानिवृत्‍त प्रधानपाठक महासमुंद छत्‍तीसगढ़
प्रकाशित कृतियां- 1. देवकी कहानी संग्रह, 2. लीम चघे करेला, 3. अपन अपन गणतंत्र
पता- टिकरा पारा रायपुर, छत्‍तीसगढ़
वेब प्रकाशक- अंजोर छत्‍तीसगढ़ी www.anjor.online 

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